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खुद की खोज

खुद की खोज... अरे ! क्यों बैठा है तू उदास, खो दिया क्या कुछ खास। उठ , चल देख सुबह हो चली है बाग में तो खिल चुकी कली है, सुबह के बज चुके हैं दस, तू बैठा क्यों ? है बन कर बे-वश, सूरज भी अपनी गर्मी में है, पर तू इतना नरमी में क्यों? है, मिलेगा तुझे भी तेरा रास्ता, पहले कर खुद से खुद का वास्ता, क्यों ? बन बैठा है लाचार, इस दुनिया में रास्ते हैं हजार ! निकल तू खुद की खोज में, रह हमेशा अपनी मौज में । जब जब हवाओं ने रुख मोड़ा है, तब तब उसने हर बंधन को तोड़ा है।। ---अभिषेक सिंह आशा करता हूं कि यह कविता आपको पसंद आएगी।। 🙏🙏धन्यवाद🙏🙏

मेरा गांव...

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    मेरा गांव.... समय कुछ ऐसा गुजरा पता ही न चला, कुछ तो पसंद आया हमें, कुछ तो बहुत खला। ये पांव, ये ख्वाहिशें, ठहर से गए हैं, गांव छोड़कर शहर जो गए हैं हवा भी अनजान सी लगती है, ये शाम भी वीरान सी लगती है, शहर की सर्दी भी सताती है सच कहूं मां तेरी याद बहुत आती है।। गांव की धूप भी शीतल लगती थी, यहां की तो रात भी जलाती है। गर !! यह जिम्मेदारी सामने न खड़ा हुआ होता, तो यह परिंदा (मैं) भी घोसला छोड़ ना उड़ा होता। -अभिषेक सिंह आशा करता हूं कि यह कविता आपको पसंद आएगी।। 🙏🙏धन्यवाद🙏🙏

मेरी चाहत...

मेरी चाहत... जिसने हमें चाहा, हम उसके हो ना सके, गम था इस बात का, फिर भी रो न सके। इल्ज़ाम लगाया उन्होंने हम पर बे-वफाई का, पर हम इस इल्ज़ाम पर भी कुछ कह ना सके।। हमारी खामोशी देख, उन्हें विश्वास हो गया था, जिस काबिल हम न थे, वो हमें मिल गया था। यूं मुंह फेर कर वह चले गए हमसे दूर, हमने उन्हें रोका तक नहीं, हम इतने थे मजबूर। सोचता हूं उनसे होगी कभी हमारी मुलाकात, न जाने वह कौन सा दिन होगा, या कौन सी होगी रात, सच हुआ सपना हमारा दिखे वो हमें एक रात, पर अफ़सोस था हमें, उस दिन आई थी उनके लिए बारात।। -अभिषेक सिंह आशा करता हूं कि यह कविता आपको पसंद आएगी।। 🙏🙏धन्यवाद🙏🙏