मेरा गांव...
मेरा गांव....
समय कुछ ऐसा गुजरा पता ही न चला,
कुछ तो पसंद आया हमें, कुछ तो बहुत खला।
ये पांव, ये ख्वाहिशें, ठहर से गए हैं,
गांव छोड़कर शहर जो गए हैं
हवा भी अनजान सी लगती है,
ये शाम भी वीरान सी लगती है,
शहर की सर्दी भी सताती है
सच कहूं मां तेरी याद बहुत आती है।।
गांव की धूप भी शीतल लगती थी,
यहां की तो रात भी जलाती है।
गर !! यह जिम्मेदारी सामने न खड़ा हुआ होता,
तो यह परिंदा (मैं) भी घोसला छोड़ ना उड़ा होता।
-अभिषेक सिंह
आशा करता हूं कि यह कविता आपको पसंद आएगी।।
🙏🙏धन्यवाद🙏🙏
Comments
Post a Comment