मेरी चाहत...
मेरी चाहत...
जिसने हमें चाहा, हम उसके हो ना सके,
गम था इस बात का, फिर भी रो न सके।
इल्ज़ाम लगाया उन्होंने हम पर बे-वफाई का,
पर हम इस इल्ज़ाम पर भी कुछ कह ना सके।।
हमारी खामोशी देख, उन्हें विश्वास हो गया था,
जिस काबिल हम न थे, वो हमें मिल गया था।
यूं मुंह फेर कर वह चले गए हमसे दूर,
हमने उन्हें रोका तक नहीं, हम इतने थे मजबूर।
सोचता हूं उनसे होगी कभी हमारी मुलाकात,
न जाने वह कौन सा दिन होगा, या कौन सी होगी रात,
सच हुआ सपना हमारा दिखे वो हमें एक रात,
पर अफ़सोस था हमें, उस दिन आई थी उनके लिए बारात।।
-अभिषेक सिंह
आशा करता हूं कि यह कविता आपको पसंद आएगी।।
Nice bhai
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteThanks
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